जैसे भारत की आज़ादी को समझने के लिए उसके विभाजन के बारे में जानना ज़रूरी है, उसी प्रकार विभाजन को अगर सही अर्थों में जानना है तो सीमा रेखा की यात्रा बहुत ज़रूरी है, हालाँकि आम आदमी के लिए उस रेखा पर घूमना-फिरना — फिर चाहे पंजाब हो या बंगाल न तो आसान है, न ही हमेशा संभव, फिर भी कवि ह्रदय बिश्वनाथ घोष की इच्छा शक्ति ने इस यात्रा को संभव बनाया। उन्होंने बटंवारे के बाद के दर्द को, अर्थ को, त्रासदी, निरर्थकता और विवशता को, इन कविताओं के ज़रिए जिया है, जो उन्होंने सीमा रेखा पर अपनी यात्राओं के दौरान रची हैं। इसी वजह से यह कविताएं और भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
उनकी रचनाएँ बहुत ही सहज शब्दों में न सिर्फ़ नई पीढ़ी को देश के बँटवारे से अवगत कराती हैं बल्कि जीवन की उन कई सच्चाइयों को भी उजागर करती हैं जो हमें या तो दिखती नहीं है, या जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा करते हैं। कानपुर में जन्मे बिश्वनाथ घोष, जो इन दिनों कलकत्ता में रहते हैं और द हिंदू अख़बार में असोसीयेट एडिटर के रूप में कार्यरत हैं, अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक हैं। कई मशहूर यात्रा वृत्तांत, जैसे कि चाय चाय और एमलेस इन बनारस, उनके नाम दर्ज़ हैं। मगर वो कविता रचते हैं हिंदी में। उनका पहला काव्य संकलन, जियो बनारस, अगर हिंदी साहित्य की दुनिया में एक मज़बूत दस्तक थी, तो टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें के साथ वे एक और बड़ी लकीर खींचते नज़र आते हैं।

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