दुनिया को तहस नहस कर डालने के लिए जितना बारूद ज़रूरी है
उससे रत्ती भर ज़्यादा ही था मेरी छाती के अंदर
मेरे सिर पर लगा होता कम-अज़-कम सात हत्याओं का पाप
एक लीचड़ अफ़सर, एक लुच्चा टीचर, एक लम्पट लीडर,
एक लबार आशिक़, एक लिज्झड़ दोस्त
और गुलाब के दो मासूम फूल
सब बच गए
(जो सात को मार सकता है
मौक़ा मिल जाए तो सात सौ को भी मार गिराएगा
सात हज़ार को भी सात लाख को भी)
सोचो कि इस दुनिया में
क़ानून नाम की चीज़ न होती तो क्या होता
और फिर यह भी सोचो कि क़ानून होने के बाद भी
भला क्या होता है
कभी कभी आँख मूँद कर बुदबुदाने लगती हूँ
एक से दस तक आड़ी तिरछी गिनती
तुम सोचते हो कोई भूला हुआ फ़ोन नंबर
याद करने की कोशिश कर रही है
आग के नाम लिखती हूँ चिट्ठी
नदी में बहा देती हूँ
तुम्हें पता नहीं चलने पाता अपने बारूद को मैं
कैसी कैसी जुगत लगा कर निष्क्रिय करती हूँ
(तुम सोचते हो मैं शौक़िया कविता लिखती हूँ ?)
न जाने उस देश की चिड़ियाँ इंसानों बारे में क्या सोचती होगी
जिस देश की हवा में बारूद की गंध शामिल हो?
मेरी दूरबीन में चिपके हुए आसमान के धवल फाहे
आँखों का लाल सोख लेते हैं
रूमान से लबरेज वसन्त के पीले-गुलाबी दिनों में मुझे
तिब्बत के तीखे स्वप्न आते हैं
बाबुषा