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हमारे यहाँ भी एक शख्स है “गुलज़ार”

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वो बिमल रॉय ,असित सेन ,ऋषिकेश मुखर्जी बासु भट्टाचार्य की स्कूल की पैदाइश था । जिसका अपनी स्टोरी टेलिंग मेथड था । गीत लिखने आया लड़का ,कहानियों से वाकिफ था ।वो कहानियों की नब्ज़ पकड़ता उन्हें टटोलता फिर उनमें खुश्बू डाल देता । कहते है एक ही कहानी को अगर चार लोग कहे सब अपने मिज़ाज़ से कहते है। उस लड़के का भी अपना मिजाज था । एक दफे एक बंगाली डायरेक्टर ने एक बंगाली कहानी पर फ़िल्म बनाई ,सिप्पी साहब को फ़िल्म पसंद आयी सो उन्होंने कहा इसे हिंदी में बना दो । डायरेक्टर साहब बोले बना दूंगा पर कास्ट वही होगी।

फ़िल्म थी “मेरे अपने ” यूँ तो फिल्म शॉट दर शॉट बंगाली फिल्म की कॉपी थी .

वो एक वक्फे में बना डायरेक्टर था जिसके पास कई कहानिया कहने को थी , वो कहानिया जो बाद में उस दौर की नस्ल ने सुननी थी और कुछ नस्लों ने उन्हें अपने पास जमा रखना था जाहिर है बंगाल से ये रिश्ता आगे हिंदी सिनेमा को और ” रिच”करने वाला था ।वो स्कूल जिसकी कहानियो में कोई “ऑब्वियस विलेन “नहीं होता था। वहां विलेन था “वक़्त ” यानी ” हालात ” .किसी राइटर को डायरेक्टर बना दो तो कहानी डोमिनेंट हो जाती है ,किरदार आसानी से “ड्रॉ ” हो जाते है पर एक दूसरे खतरे की गुंजाईश रहती है अपनी कहानी को वो जिस तरह विज्यूलाइज़ करता है स्क्रीन पर उसे उस तरह रखने की तरतीब कई बार उसे नहीं आती। यानी आप के पास एक शै का फन तो रहता है दूसरी शै में शायद आप कच्चे हो। और खुलासे से कहूं तो किसी शॉट के दरमियान बहुत सी चीज़े मायने रखती है। बैकग्राउंड में झूलती कुर्सी ,हिलती परदे ,मेज पर रखा चस्मा,कितने डिस्टेंस से कैमरा किरदार से बात कर रहा है। ये बहुत बारीक शै है पर किसी सीन का हिस्सा रहती है। ये फन आहिस्ता आहिस्ता ग्रूम करता है। बाद के सालो में आप “लेकिन ” को देखेंगे तो पाएंगे रेगिस्तान उस फिल्म का एक किरदार है.कहानिया दो तरह की होती है एक जिन पर एतबार किया जा सकता है दूसरी जिन पर नहीं। आर्ट और पेरेलल सिनेमा से अलग उस स्कूल का सिनेमा यही था। गुलजार जानते थे स्क्रीन पर चलने के लिए किसी कहानी को क्या चाहिए वे उसे एक्स्टेंड करते थे इस तरह से की कहानी की रूह नहीं मरती थी और किरदारों को एक चेहरा मिलता था। ,मसलन खुश्बू एक छोटी सी कहानी थी जिसे उन्होंने स्क्रीन प्ले में कन्वर्ट किया  !

“मेरा गोरा अंग ले ले भी उन्हें इसलिए मिला था क्यूंकि शैलेंद्र और मुखर्जी दा में कुछ अनबन हुई और शैलेन्द्र ने गुलजार को गीत लिखने को आगे किया था। गुलज़ार जिन्हे लगता था फिल्म वाले टेस्ट नहीं समझते फिल्म में आना नहीं चाहते थे। शैलेद के इसरार पर आये उन्होंने बताया लोग बिमल रॉय के साथ काम करने के लिए पागल रहते है। शुरू में उनके तखल्लुस की वजह से मुस्लिम समझा गया बाद में पता लगा ये तो बंगाली बोलने वाला सरदार है जिसका असली नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है। जिसके खानदान में शुरू में इस बात का गम है के ” हमारे खानदान में ये मिरासी कहाँ से पैदा हो गया ” गीत लिखने वाले लड़के ने आहिस्ता आहिस्ता अपनी जगह बना ली वही मख़सूस जगह थी उनके लिए। वो पहले ऐसे डायरेक्टर थे जो डायलॉग भी लिख लेते थे ,स्क्रीन प्ले भी और गीत भी। पर गुलज़ार यूँ ही गुलज़ार नहीं थे  आनंद फिल्म के डायलॉग सुनिए ”  काश हम अपनी मर्जी से अपने रिश्तेदार चुनते जैसे हम दोस्त चुनते है ” ये उनकी  नज़्मे है जो डायलॉग बनी है  “मौत तुझसे मिलने का वादा है  ”  वो नज़्म कहानी का हिस्सा ही है ,एक बड़ा हिस्सा। 

आशीर्वाद फिल्म याद कीजिये और उसमे कही गयी बाते। मुझे अशोक कुमार जिन फिल्मो से याद रहते है आशीर्वाद उनमे से एक है। और  “ख़ामोशी ” उसका स्क्रीन प्ले।  डायरेक्टर गुलज़ार दरसल एक पुल थे कहानी और सिनेमा के बीच कहानियों का उनका तर्जुमा इस तरह से होता था वे अपना इमोशनल कंटेट बरकरार रखते हुए आम ऑडिएंस से कनेक्ट होती थी ।फ़िल्म की कमर्शियल वेल्यू का वापस मिलना और फायदे में रहना प्रोड्यसर का उनमें बिलीव पैदा करता था । एक डायरेक्टर की क्रिएटिविटी की भूख भी शांत हो जाती थी और उसे अपनी तरह से  कहानी कहने की आज़ादी भी मिल जाती थी किसी डायरेक्टर का   “पढ़ा लिखा : होना क्यों सिनेमा और उसके ऑडिएंस के लिए जरूरी है ये बतलाता है।  पढ़े लिखे से मतलब एडुकेशन से नहीं है। पढ़े लिखे से मतलब दुनिया भर की ,अपने आस पास की कहानियो से वाकफियत है। रॉय -मुखर्जी -सेन स्कूल  निकले वे अपने साथ नयी कहानिया ले कर आये। अलबत्ता कहानिया बंगाली ही थी । 

खवाजा अहमद अब्ब्बास की कहानी से हमें “अचानक “मिली ,साउंड ऑफ़ म्यूज़िक से इंस्पायर्ड ” परिचय “

A j Cronin’s के नॉवल the Judas tree पर हमें “मौसम” मिली ,सुबोध घोषाल की कहानी पर “इज़ाज़त” ,शरदचंद चटोपध्याय की कहानी पर “खुश्बू” , रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी कुडिटो पाषाण पर “लेकिन ”   आंधी को भी सचिन भौमिक ने लिखा जिसे कमलेश्वर को स्क्रीन प्ले लिखने को कहा गया। 

कहते है मृणाल सेन भी इज़ाज़त बनाना चाहते थे ,मृणाल सेन की बिरलिएंस पर किसी को कोई शक नहीं पर हर कहानी का एक ट्रीटमेंट होता है ,कहने का अपना तरीका। आदमी औरत के रिश्ते की बाबत इस तरह कहने की नफासत के लिए  अलग तरह की कैफियत का होना लाज़मी है। गुलज़ार में वो फन था। एक और दिलचस्प बात मुझे लगी उनकी फिल्मो में नॉन एक्टर भी एक्टर जैसे लगे। मसलन जितेंद्र ,जिन्हे कमोबेश बतौर एक्टर सीरियस लिया नहीं गया। “परिचय  ”  “खुशबू” और “किनारा” ने उन्हें एक अलग मुकाम दिया शायद उनके पास जो बेहतरीन काम है उनमे यही शामिल है।  हेमा मालिनी यक़ीनन एक लोकप्रिय एक्टर थी पर मुझे हमेशा उनके  एक रेंज में रहने की लिमिटेशन दिखी। खुशबू में वे अलग दिखती है। कहने वाले तो ये भी कहते है के गुलज़ार को  हमेशा कहानी  कहने की आदत फ्लैशबैक से  है। उनकी ज्यादातर कहानिया फ्लैशबैक में है और  “किताब “

समरेश बासु की कहानी पर आयी फिल्म।  हिंदी सिनेमा में मेन स्ट्रीम सिनेमा में बच्चे को मुख्य किरदार में लेकर इस बजट की कितनी फिल्म बनी है। 

77 में बच्चन के एंग्री यंग मैन फिनोमिना के दौर में एक शायर किसी बच्चे की कहानी कहता है।और इस मख़सूस तरीके से सुनाता है के आप उससे रिलेट करने लगते है ,इस कहानी को कहने के लिए आपके पास एक अलग मिजाज चाहिए ,एक अलहदा किस्म की  दानाई। जो जाहिर ना हो। उत्तम कुमार होकर भी नहीं है और “धन्नो की आँख में चाँद का सूरमा” मै अब भी नहीं भूला हूँ ,उसकी धुन बजते ही मै पहचान लेता हूँ ,किसी डायरेक्टर का यही क्राफ्ट है उसके क्रिएशन को याद रखा जाये और याद  तभी रखा जाता है जब कहानी कहने से पहले कहानी में खुद उसका यकीन हो। 

गुलज़ार कहते है उनके दो मेंटर रहे है संजीव कुमार और आर डी। पर कभी कभी आप साथ रहते हुए एक दूसरे को कुछ देते हो। और उस देने में आर्ट का ,अदब की ग्रोथ होती है ,जो लीनियर नहीं होती ,मल्टी डायमेंशल होती है। समरेश बसु की ही कहानी पर बेस है उनकी एक और फिल्म है “नमकीन “तीन लीड ऐक्ट्रेस को एक साथ लाते हुए उनका इस तरह से स्क्रीन पर प्रजेंस रखना की तीनो को इस बात पर यकीन हो उनका स्पेस बरकरार रहेगा ,ये बड़ी बात है ,ये बतलाता है बतौर डायेक्टर गुलज़ार पर एक्टर का फेथ कितना है ,कहानी पर कितना एतबार है और अच्छी कहानी में कितना यकीन है। `शायद,शबाना के साथ उनकी पहली फिल्म थी। यहाँ संजीव कुमार की बिरेलियेंस तो थी जिसमे वो अपनी बॉडी लेंग्वेज से पूरे ट्रक ड्राइवर लगे है पर उस लोकेशन उस घर पे आप पहले सीन से ही शामिल हो जाते है। ये भी साधारण लोगो की ही कहानी है जिनके लिए जीवन रोज एक संघर्ष है। 

गर आप इस  कहानी को फिल्म से डिटैच करके पढ़ेंगे तो आपको लगेगा इस डार्क कहानी पर फिल्म कैसे बनायीं जा सकती है ,ऑडिएंस क्या इसे एक्सेप्ट करेगा ? पर गुलज़ार फिर अपनी स्ट्रोरी टेलिंग आर्ट्स से इस कहानी को कह जाते है ,संजीव कुमार इसमें नेरेटर है कहानी तो दरसल तीन बहनो और उनकी मां है। पर आप उनके जरिये इस कहानी में घुसते चले जाते है  .फिल्म में सब कुछ है एक स्त्री के संघर्ष ,उसके गरीब और जवान होने से बढे संघर्ष। किसी घर में किसी पुरुष की एब्सेंस से सामाजिक सुरक्षा का टैग ,अपनी इच्छाओ को ढकेलती  लड़की ,तीनो बहनो का अपना मिजाज। 

और मिर्जा ग़ालिब  का जिक्र किये बगैर गुलज़ार को कहना नाइंसाफी होगी वे ग़ालिब से गुलज़ार बरसो से मुतास्सिर थे ,जाहिर है ग़ालिब को स्क्रीन पर बयान करना उनका  सपना था ,और संजीव कुमार उनकी पहली पसंद। पर सिर्फ ग़ालिब को कहना वो भी आसान होकर ये उतना ही मुश्किल था। उन्होंने फिर क्राफ्ट यूज़ किया। पर नसीर को ग़ालिब के किरदार में लेना, किसी को उनकी इस चॉइस पर एतबार नहीं था ना प्रोड्यूसर को ,ना कैमरा मैन को ,ना टीम को।  पर गुलज़ार को नसीर में शायद कुछ दिखा। जब ग़ालिब कमोबेश टी वी स्क्रीन पर नुमाया हुआ हमें इस मीडियम की ताकत का इल्म हुआ। नॉन शायर लोग शायरी से मुतास्सिर हुए उर्दू जबान का जायका लोगो को लगा। लोग इसके टाइटल सांग को सुनने के लिए स्क्रीन पर बैठते और नसीर जो की इस किरदार के लिए जिद किये बैठे थे वाकई ग़ालिब की रूह में उतर गए और दो सरदारों ने (जगजीत सिंह दूसरे सरदार है ) ग़ालिब को ग़ालिब सी इज़्ज़त बख्शी।  जगजीत का शायद “कहकशा” के अलावा ये बेस्ट काम है। 

गुलज़ार ने बचपन में अपनी मां को खो दिया  था ,बिन मां के बच्चे में तल्ख़ होने की गुंजाईश ज्यादा रहती है ,उसके पास शिकायते मौजूद रहती है पर गुलज़ार पता नहीं किस करिश्मे से आदमियत में ,यकीन रखते हुए अपने मिजाज में नरम रहे। माँ पर उनकी नज़्म मुझे बेहद अज़ीज़ है। 

जब कोई मुझसे कहता है के ईरान के डायरेक्टर अब्बास किरोस्तामी में रिश्तो पर हालात पर स्क्रीनी कहानिया कहने का हुनर है ,मै हामी भरता हुआ कहता हूँ हमारे यहाँ भी एक शख्स है ” गुलज़ार” !

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