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Baabusha Kohli

इधर कोविड विज़िट के बाद तन में हज़ार बरसों की थकान भर गयी थी। कोई चोट नहीं जो किसी मरहम से सूख जाए, न ही कोई पीड़ा या ताप, जो दवा-गोली के असर से कुछ कम हो रहे। बस थकान, जैसे न जाने कितने प्रकाशवर्षों से पैदल चल रही होऊँ। और इसके ठीक उलट भीतर कोई पनीली चमकदार लहर उछाल मारती रहती है। मानो कोई रबर की गेंद हो, एकदम उजली, सुबह के सूरज जैसे रंग की। वह गेंद देह की सतह पर पड़ती है और दुगुनी गति से भीतर लौट आती है। मैं उसे अपने हृदय में लपक लेती हूँ और धमनियों में रोशनी बहने लगती है। मगर यह चमकीला रक्त-प्रवाह भी शरीर की थकान में कोई आराम देता नहीं दिखता। ऐसा लगता है मानो सूर्य के भीतर निरंतर चलते प्रचंड विस्फोटों से धरती पर धूप झर रही है और अपना शरीर मध्य भारत में स्थित पातालकोट का कोई गाँव हो जहाँ सूर्य की किरण पहुँचती ही नहीं। मगर नींद की अवस्था में भी ऊर्जा कभी कभी ऐसा रूप दिखाती है कि यूँ लगता है कहीं उँगली की नोक पर समुद्र न उठा लूँ। नहीं, पर्वत नहीं। पर्वत को तो गैया चराने वाला एक प्यारा मनुष्य पहले ही उठा चुका है। पाँच हज़ार वर्षों में दुनिया कम-अज़-कम पत्थर से पानी तक तो पहुँचे।

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एक बार कार्यस्थल पर एक सहकर्मी ने मुझसे बेमतलब का कोई दस्तावेज माँगा। मैंने कहा, पता नहीं कहाँ रखा है। वे बोले, आपने रखा है। आपको ही नहीं पता। मैंने कहा, स्थान में रखा है, स्मृति में थोड़े ही रखा। वे बिफर गए। वरिष्ठता से परिपूर्ण परामर्श देने लगे कि मुझे एक- एक चिंदी का ध्यान रखना चाहिए। न जाने कब किसका क्या काम पड़ जाए।

मैंने पूछा, आपको अपनी श्वास का स्मरण है ? वही सबसे निकट है।

इस घटना के बाद वे कई दिनों तक मुझसे बौखलाए-से फिरते रहे मगर यह स्वीकार करने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाए कि कूड़े को अपने अवचेतन में सजा-सँवार कर रखने की आवश्यकता नहीं।

श्वास की बात पर यह विचार आया कि विश्व की अधिकांश आबादी को कभी यह पता ही नहीं चलने पाता कि वे किस ढंग से श्वसन-क्रिया करते हैं या भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में जीवों का श्वास लेने का ढंग बदल जाता है। मसलन कि यह बात प्रायः सभी को ज्ञात है कि दौड़ने पर, तेज़ चलने पर, शीघ्रता से कोई कार्य करने पर या दैहिक प्रेम करने पर श्वास तीव्र गति से चलता है मगर यह बात कम लोग ही जानते हैं कि क्रोध की दशा में भी श्वास सामान्य से अलग ढंग से गति करती है। दैहिक श्रम में श्वास की गति को पकड़ लेना सरल है। मनोदशाओं के परिवर्तन के साथ इसकी चाल झाँक लेना कठिन तो नहीं, मगर सरल भी नहीं है।

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यूँ ढेरों लोग प्रतिक्षण श्वास लेते हैं मगर अपने श्वास को रत्ती भर भी नहीं चीन्हते-जानते। कुछ, जो जानते हैं, वे एकदम सीधे-सीधे हवा के आवागमन की उबाऊ प्रक्रिया भर जानते हैं, जिस पर एकाग्रता का लायसेंस केवल तिब्बती लामाओं के पास होता है। फिर एक श्रेणी और है, जो खेल में रस लेती है। मैं वही रसिक हूँ।

श्वास हमेशा सीधी ही नहीं चलती, कभी-कभी रोटी की तरह गोल भी चलती है। छाती और नाभि की बीच कोई बेल देता हो जैसे। किसका पेट भरती है यह श्वास, किसने देखा ? कभी-कभी वह नाभि से किसी चक्रवात की भाँति लहराते हुए भी फेफड़े तक उठती है गोल चक्कर खाते हुए। कौन नष्ट हुआ, किसने देखा ? फिर कभी-कभी यह साइकिल की चेन की तरह चलती है ऊपर-नीचे। कौन चलाता है साइकिल, किसने देखा ? और कभी यह बन जाती है काँच पुता तीखा माझा। इधर डोर की रगड़ से छिलती है छाती, कौन पतंग उड़ाता है, किसने देखा ?

ऐसे ही किसी दिन नींद में जाने के पहले मैं आँखें मूँदे श्वास के खेल में लीन थी कि तभी हृदय की जाने किस कंदरा से पानी का एक सोता फूट पड़ा और नीचे जाने वाली श्वास से मिलकर बहने लगा। धीरे-धीरे पानी बढ़ने लगा और अब श्वास एक भरपूर नदी में बदल गयी। अभी नदी अपनी चाल पकड़ ही रही थी कि आगे एक मिट्टी का बाँध आ गया। ये तो बड़ी गड़बड़ हुयी। अब नदी आगे बढ़े तो बढ़े कैसे। दाएँ कान के नीचे पसीना आ गया। उस एक क्षण को लगा कि यही भैरवी यातना है। और उसी क्षण के सौवें हिस्से में किसी ने पतंग को छुड़ैया दे दी। पतंग उड़ निकली, माझा ढील देकर तन गया, नदी अदृश्य हो गयी। वह काल-भैरव के दर्शन का क्षण था। तैयारी नहीं थी, सो आँख नहीं मिला पायी।

कभी-कभी किसी श्वास को इस तरह लेती हूँ जैसे यह अंतिम हो,

बीच में रुक कर तर्जनी पर नेल पेंट लगा लेती हूँ

बाबुषा

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